Monday, May 25, 2020

घिंघारु - रेड हिमालयन बेरी

पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाले बहुत से पेड़ पौधों के विभिन्न उत्पादों (फल,छाल, पत्ती इत्यादि) का उपयोग औषधि के रूप में सदियों से होता आ रहा है .इसी क्रम में हम बात करेंगे घिंघारु(Indian hawthorn) की जिसका वानस्पतिक नाम Pyracantha crenulata एवं कुल rosaceae है.यह एक झाड़ीनुमा , बहुवर्षीय पौधा होता है एवं इसके फल देखने में सेब जैसे एवं आकार में बहुत ही छोटे होते हैं और स्वाद में हल्का खट्टा - मीठा होता है.

 इसके आकर्षक रंग के कारण छोटे बच्चे इसे बहुत पसंद करते हैं. घिंघारु पक्षियों का भी बहुत अच्छा आहार है .घिंघारु की मुलायम टहनियों का इस्तेमाल दातून के रूप मे एवं पत्तियों का  हर्बल काढ़ा बनाने में किया जाता है.


                       


हिमालयी क्षेत्रों में यह  800 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर पथरीली भूमि में प्राकृतिक रूप से उगता है.
 स्वाद में तुलनात्मक रूप से कम अच्छा  परंतु औषधीय गुणों  से भरपूर होते हैं.  Anti-oxidant व anti - inflammatory गुणों के साथ घिंघारू हृदय विकार ,रक्तचाप व मधुमेह में भी लाभकारी  होता है.  इसके अलावा विटामिंस, मिनरल्स ,प्रोबायोटिक्स इत्यादि  का भी अच्छा स्रोत  है.

घिंघारु के हृदय संबंधी फायदे देखते हुए Defence Institue of Bioenergy Station , पिथौरागढ़ ने इसके औषधीय गुणों का अध्ययन किया है एवम "हृदय अमृत" नाम की एक कार्डियोटोनिक तैयार किया है.


                       
                     

घिंघारू के औषधीय महत्व को देखते हुए इसके व्यवसायिक खेती की आवश्यकता है जिससे विभिन्न उत्पाद तैयार हो सकें एवं स्थानीय लोगों को भी रोजगार के अवसर भी मिले.
 घिंघारू के बारे में कोई रोचक अनुभव या जानकारी है तो साझा करें.


( सभी जानकारियां विभिन्न लेखों के अध्ययन एवं स्थानीय लोगों के साथ बातचीत पर आधारित हैं)
फोटो साभार: रेनू धामी, पिथौरागढ़,उत्तराखंड.

Friday, May 22, 2020

उत्तराखंड के रसीले व स्वादिष्ट काफल

अपने कुमाऊँ प्रवास के दौरान मैंने प्रसिद्ध कुमाऊँनी गीत ''बेडु पाको  बारो मासा नरण काफल पाको चैता मेरी छैला..." सुना. इस गीत को थोड़ी मशक्कत के बाद कोई भी हिंदी भाषी  भी समझ सकता है . बेडु एक फल होता है जो वर्ष के 12 महीने पकता है जबकि काफल सिर्फ चैत्र के महीने में पकता है.

काफल दिखने में शहतूत जैसा किंतु आकार में गोल होता है एवं बहुत से औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है इसका वानस्पतिक नाम Myrica esculenta और फैमिली Myricaceae  है .इसे बॉक्सी मिरटल (boxy myrtle) या बे -बेरी(bay berry) भी कहते हैं.
               

                   
काफल मुख्यतः भारत के उत्तराखंड व भूटान एवं नेपाल की पहाड़ियों  कर पाया जाता है.
वृक्ष(tree) अथवा झाड़ी(shrubs) की ऊंचाई लगभग 6-8 मीटर होती हैं और फल मई -जून के महीने में पककर तैयार होते हैं . फल  स्वाद में खट्टे -मीठे होते हैं जोकि विटामिन और आयरन के अच्छे स्रोत होते हैं.

 मई -जून के महीने में काफल कुछ स्थानीय लोगों की आजीविका का भी साधन होता है. इन महीनों में बस स्टॉप व अन्य  सार्वजनिक स्थानों पर स्थानीय  लोग काफल बेचते रहते हैं.

  काफल का लंबे समय तक भंडारण नहीं किया जा सकता है यह पेंड़ से टूटने के बाद एक ही दिन में खराब होने लगता है इसलिए इसका ट्रांसपोर्ट पहाड़ों से दूर दराज के इलाकों में नहीं किया जा सकता . इस वृक्ष की खेती नहीं होती है यह प्राकृतिक रूप से उगता है इसलिए इसके संरक्षण की नितांत आवश्यकता है .बहुत सी कुमाऊनी लोक कथाओं में भी काफल का जिक्र किया गया है.
                         

काफल के बहुत सारे स्वास्थ्य संबंधी फायदे हैं . यह एंटीऑक्सीडेंट का अच्छा स्रोत होता है .जुकाम, अरक्तता (anaemia),अस्थमा ,अतिसार व  यकृत संबंधी बीमारियो में काफल काफी लाभकारी होता है.

 फल के साथ - साथ काफल की छाल व पत्तियां भी  बहुत सारे  औषधीय  गुण  रखते हैं . छाल में एंटी इन्फ्लेमेटरी ,एंटीबायोटिक और  एंटीआकसीडेंट  गुणधर्म होते है.
काफल में एंटी - एजिंग और कैंसर - रोधी क्षमता भी होती है.

काफल से संबंधित कोई रोचक अनुभव या महत्वपूर्ण जानकारी हो तो साझा करें.
( पहला फोटो गढ़वाल से हमारे मित्र Navendu Raturi और दूसरा पिथौरागढ़ से हमारी छोटी बहन रेनू धामी के सौजन्य से साभार )



         
                 

Wednesday, May 20, 2020

हिसालू- रसीली और स्वादिष्ट हिमालयन बेरी

  हिसालू(yellow himalayan raspberry) एक कटीली झाड़ी है. यह गुलाब कुल (rosaceae family) से संबंध रखता है.हिसालू का वानस्पतिक नाम Rubus ellipticus  हैं.
हिसालू मूलतः भारत ,नेपाल  भूटान ,चीन , इंडोनेशिया और फिलीपींस में ऊंचाई वाले स्थानों पर पाया जाता है . भारत में हिमालयी क्षेत्रों में  प्राकृतिक रूप से उगता है.
 यह एक प्राकृतिक झाड़ी है लेकिन इसका कायिक प्रवर्धन द्वारा भी विकास किया जा सकता है. इसे  हिसर या फिर गौरी फल भी कहते हैं.
               

 यह  अत्यंत मुलायम एवं खट्टे-मीठे  स्वाद से युक्त रसीली बेरिया होती हैं. यह काले और पीले रंगों का होता है लेकिन पीले रंग का हिसालू आम है.
 सबसे बड़ी समस्या हिसालू के भंडारण को लेकर यह पौधे से तोड़ने के कुछ ही घंटे में खराब हो जाते हैं इसलिए मैदानी क्षेत्रों और महानगरों के लोग इसके स्वाद वंचित रह जाते हैं.
                         
                           

 इसके फल मई -जून के महीने में पक कर तैयार होते हैं .यदि आपको इसका स्वाद चखना है तो आपको पहाड़ों का रुख करना पड़ेगा.
 भारत में हिसालू उत्तराखंड के नैनीताल ,अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और अन्य ऊंचाई वाले हिमालई क्षेत्रों में पाया जाता है. बहुत सी कुमाऊंनी लोक- गीतों में हिसालू का उल्लेख किया गया है.
हिसालू के बहुत सारे स्वास्थ्य संबंधी भी फायदे हैं यह एंटी ऑक्सीडेंट का बहुत अच्छा स्रोत है. एंटी- ऑक्सीडेंट शरीर में बनने वाली सक्रिय ऑक्सीजन प्रजातियों(Reactive oxygen species) को नष्ट करते हैं जो बहुत सी गंभीर बीमारियों के कारक है इसके अलावा पेट दर्द ,खांसी एवं बुखार  में भी यह लाभकारी है. हिसालू का एक्सट्रैक्ट प्रतिजीवी(antibiotic) गुण भी रखता है.

                         
     
 हिसालू एक जंगली वनस्पति है इसलिए इसके महत्व को देखते हुए I.U.C.N. ने इसे वर्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पीशीज के अंतर्गत सूचीबद्ध किया है.
 हिसालू के बारे में कोई अनुभव या उपयोगी  जानकारी हो तो  साझा करें.

 (सभी फोटो पिथौरागढ़ से मेरी छोटी बहन रेनू धामी के सौजन्य से साभार)             
                       


Monday, May 18, 2020

दहियल(दहियर)- बांग्लादेश का राष्ट्रीय पक्षी


दहियल(Oriental magpie-robin) फ्लाई कैचर समूह का सदस्य है जिस का वैज्ञानिक नाम Copsychus saularis  है. इसे दहियर, डोयल और काली सुई चिड़िया आदि नामों से भी जाना जाता है . सामान्यतः यह पक्षी खेतों और बगीचों में मनुष्य के साथ रहता है इसका आकार 18- 20 सेंटीमीटर और वजन लगभग 36 ग्राम होता है.
            

दहियल को बांग्लादेश के राष्ट्रीय पक्षी होने का गौरव प्राप्त है यहां तक कि इसका चित्र वहां के कुछ करेंसी नोटों पर भी छपा हुआ मिलता है और बहुत सारे प्रतिष्ठान और लैंड मार्क इसी नाम से मिलते हैं.

यह अपना भोजन जमीन पर कीड़े पकड़कर करता है इसके अलावा  छोटी छिपकली,केंचुए इत्यादि को अपना आहार बनाते हैं .कभी-कभी यह फूलों का मकरंद(nectar) भी निकालते हैं.
                    
प्रजनन काल जनवरी से जुलाई (भारत में मार्च से जुलाई )तक होता है . यह  अपना घोंसला ऊंची झाड़ियों में , पेड़ों पर, पेड़ों की कोटर में , दीवारों में पाए जाने वाले  खाली स्थानों में बनाते हैं . मादा सामान्यतः चार -पांच अंडे देती है. अंडों की देखभाल नर और मादा बारी-बारी से करते हैं . एक बार अंडों से बच्चे निकलने के बाद मादा बच्चों को खिलाने का काम  करती हैं और  नर  घोंसले की रखवाली करता है.
दहियर  अपने विशिष्ट प्रकार के नृत्य के लिए जाना जाता है साथ-साथ इसका गीत लोग बहुत पसंद करते हैं.


  (स्रोत - सभी फोटो और वीडियो घर के  पास बगीचे और खेत के हैं और स्वयं खींचे  गए हैं )            
 

Saturday, May 16, 2020

लेमन ग्रास के औषधीय गुणधर्म

 नींबू घास या लेमनग्रास एक उष्णकटिबंधीय पौधा है जो अपने विशिष्ट सुगंध के लिए जाना जाता है .इसकी खुशबू नींबू से मिलती-जुलती है. नींबू घास की उत्पत्ति भारत और श्रीलंका  मानी जाती है. नींबू घास का प्रयोग मुख्यतः सिट्रोनेला तेल बनाने में किया जाता है . इसके अलावा  इसका  प्रयोग विभिन्न प्रकार के सेंट औषधियां और मच्छर भगाने का लिक्विड  और अगरबत्ती बनाने में किया जाता है.

 लेमन ग्रास की चाय सर्दियों में कफ और सर दर्द में आराम के लिए प्रयोग की जाती है.

 लेमन ग्रास की चाय बनाने की विधि-

 सामग्री-
 लेमन ग्रास -  आधा कप बारीक कटी हुई
गुड  /जागरी-    स्वाद अनुसार
        पुदीना-   आधा कप बारीक कटा हुआ

 विधि-
1. लेमनग्रास पुदीना और गुड़ को 6 कप पानी में उबलने तक गर्म करें.

2. आंच धीमी कर  दें और तीन कप होने तक गर्म करें.

3. गैस बंद कर दें और चाय की पत्ती  डालने के बाद 2 मिनट तक ढक दें.

4.  छानकर गरमा -गरम सर्व करें.

 नोट -सिर्फ लेमन ग्रास की चाय बन सकती है पुदीना वैकल्पिक है.
             
Lemon Grass Plant

 लेमन ग्रास के गुण-
1.  Antioxidant  के तौर पर-  एंटी ऑक्सीडेंट का मुख्य कार्य  हमारी कोशिकाओं में  बनने वाली  रिएक्टिव ऑक्सीजन प्रजाति(Reactive Oxygen Species)को नष्ट करना होता है .यह अत्यधिक क्रियाशील होते हैं और कई बीमारियों का कारक है.

2. कैंसर रोधी गुणधर्म -  लेमनग्रास में मौजूद कुछ तत्व हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करते हैं और कैंसर कोशिकाओं को है मारने में मदद करते हैं इस तरह  यह पौधा कैंसर रोधी गुणधर्म रखता है

3. पाचन शक्ति बढ़ाने में - लेमनग्रास की चाय पाचन क्षमता को  बढ़ाती  है और पेट के अल्सर से  बचाती है.

4. रक्तचाप के नियंत्रण में - लेमन ग्रास का नियमित सेवन  उच्च और निम्न रक्तचाप के साथ-साथ हृदय गति को भी नियंत्रित रखता है.

5. कोलेस्ट्रॉल के नियंत्रण में - लेमन ग्रास का सेवन कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित रखता है जिससे कि हृदय रोग का खतरा कम होता है.

6.  अवसाद में - लेमन ग्रास एंटीडिप्रेसेंट की  तरह कार्य  करती हैं जिससे अवसाद(depression) के मरीजों को लाभ मिलता है.

 नुकसान- कुछ लोगों को लेमन ग्रास के प्रयोग से एलर्जी होती है और कुछ लोगों की हृदय गति बढ़  जाती है. इसके अलावा अधिक भूख लगना  ,सिर चकराना इत्यादि लेमन ग्रास के नुकसान भी हो सकते हैं हालांकि इस तरह के नुकसान / समस्याएं व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हैं मेडिकल साइंस   ऐसा कोई दावा नहीं करता  है.


Thursday, May 14, 2020

पुदीना - स्वाद, सेहत और सुगंध का खजाना

  पुदीना(Mentha arvenis) मेंथा प्रजाति का सदस्य है जिसे अंग्रेजी में मिंट कहते हैं .यह अपनी विशिष्ट सुगंध के लिए जाना जाता है. पुदीना मेंथाल का मुख्य स्रोत है. पुदीना ताजा और सूखा दोनों  तरह से प्रयोग होता है.

पुदीने के उपयोग-

1.  मेंथॉल का उपयोग विभिन्न प्रकार की औषधियों, सौंदर्य प्रसाधन ,गुटखा ,सिगरेट इत्यादि के निर्माण में किया जाता है.

2.  पुदीने की पत्तियां और धनिया, मिर्चा ,नमक इत्यादि मिलाकर चटपटी और स्वास्थ्यवर्धक चटनी बनती है.

3. प्रतिदिन पुदीने की कुछ पत्तियां चबाकर खाने से मुंह से आने वाली  दुर्गंध से निजात पाई जा सकती है.

4. पुदीना ,नींबू और प्याज के रस  को बराबर मात्रा   मैं मिलाकर सेवन करने से हैजा रोग में लाभ मिलता है.

5. बहुत से त्वचा रोगों में भी पुदीना लाभकारी है.


6. पुदीने की पत्ती को बारीक पीसकर शहद के साथ मिलाकर दिन में तीन चार बार  चाटने से अतिसार में राहत  मिलती है.

7. बिना दूध के बनने वाली पुदीने की चाय भी बहुत गुणकारी होती है.

8. पेट दर्द मैं पुदीना और अल्प मात्रा में जीरा, हींग और काली मिर्च मिलाकर पीने से आराम मिलता है.

घर पर कैसे उगाएं-  बाजार से लाए गए पुदीने की पत्तियां तोड़कर उपयोग कर  ले और  डंठल किसी नम जगह पर लगा दे यदि आपके पास खाली जमीन नहीं है तो गमले में मिट्टी भरकर लगाया जा  सकता है.



Tuesday, May 12, 2020

हमारे आंगन की गौरैया

 घरेलू गौरैया(Passer domesticus) , passeridae  परिवार का सदस्य है जो भारत समेत पूरे एशिया और यूरोप मेंं  पाई जाती है इसका वजन लगभग 25 से 40 ग्राम होता है और आकार करीब 16 सेंटीमीटर होता है .सामान्य तौर पर  यह घर की कोटरो में अपना घोंसला बनाती है. भोजन स्वभाव में यह सर्वाहारी है और इसका मुख्य आहार  कीट -पतंगे और विभिन्न प्रकार के  बीज होते हैं . गौरैया की घटती हुई जनसंख्या को  देखकर  पक्षी प्रेमियों ने  घर -घर में  कृत्रिम  घोंसले (Bird House) लगाने का  कार्य  शुरू किया  है .

 गौरैया को होने वाले मुख्य  खतरे-  शहरों में बढ़ती बहुमंजिला इमारतों के कारण गौरैया को उचित आवास  ना मिल पाना, खेतों में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशक की वजह से इसके प्राकृतिक आहार में कमी आना  और   कीटनाशकों के प्रयोग से  इनके प्रजनन क्षमता में कमी आना इनकी घटती  हुई जनसंख्या का मुख्य कारण है. मोबाइल के टावरों से निकलने वाला विकिरण भी इनके स्वास्थ्य के लिए खतरा है.


   गौरैया के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति जागरूकता हेतु प्रतिवर्ष 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है